सर्वद्वारेषु देहेऽस्मिन्प्रकाश उपजायते |
ज्ञानं यदा तदा विद्याद्विवृद्धं सत्त्वमित्युत || 11||
लोभ: प्रवृत्तिरारम्भ: कर्मणामशम: स्पृहा |
रजस्येतानि जायन्ते विवृद्धे भरतर्षभ || 12||
अप्रकाशोऽप्रवृत्तिश्च प्रमादो मोह एव च |
तमस्येतानि जायन्ते विवृद्धे कुरुनन्दन || 13||
सर्व-सभी में; द्वारेषु-द्वारो द्वारा; देह-शरीर अस्मिन्-इसमें; प्रकाश:-प्रकाश; उपजायते-प्रकट होता है; ज्ञानम्-ज्ञान; यदा-जब; तदा-उस सम; विद्यात्-जानो; विदृद्धम्-प्रधानता; सत्त्वम्-सत्त्वगुणः इति इस प्रकार से; उत-निश्चित रूप से; लोभ:-लोभ; प्रवृत्तिः-गतिविधि; आरम्भः-परिश्रम; सकाम साकाम कर्म; अशम:-बैचेनः स्पृहा-इच्छा; राजसि-रजोगुण में; एतानि ये सब; जायन्ते विकसित; विवृद्धम्–जब प्रधानता होती है; भरत-ऋषभ-भरतवंशियों में प्रमुख, अर्जुन; अप्रकाश:-अँधेरा; अप्रवृत्तिः-जड़ताएँ; च-तथा; प्रमादः-असावधानी;मोह:-मोह; एव–निस्संदेह; च-भी; तमसि-तमोगुण का; एतानि ये; जायन्ते प्रकट होते हैं; विवृद्ध–प्रधानता होने पर; कुरूनन्दन्-कुरूपुत्र, अर्जुन।
BG 14.11-13: जब शरीर के सभी द्वार ज्ञान से आलोकित हो जाते हैं तब इसे सत्वगुण की अभिव्यक्ति मानो। जब रजोगुण प्रबल होता है तब हे अर्जुन! लोभ, सांसारिक सुखों के लिए परिश्रम, बचैनी और उत्कंठा के लक्षण विकसित होते हैं। हे अर्जुन! जड़ता, असावधानी और भ्रम यह तमोगुण के प्रमुख लक्षण हैं।
Start your day with a nugget of timeless inspiring wisdom from the Holy Bhagavad Gita delivered straight to your email!
श्रीकृष्ण पुनः कहते हैं कि किस प्रकार से तीन गुण किसी जीव की सोच को प्रभावित करते हैं। सत्त्वगुण सद्गुणों के विकास और ज्ञान के आलोक की ओर ले जाता है। रजोगुण लोभ और सांसारिक उपलब्धियों के लिए कार्यों में व्यस्तता तथा मन को बैचेनी की ओर ले जाता है।
तमोगुण के कारण बुद्धि में भ्रम, आलस्य, मादक पदार्थों और हिंसा के प्रति रुचि उत्पन्न होती है। वास्तव में ये गुण भगवान और अध्यात्म मार्ग के प्रति हमारी मनोवृति को भी प्रभावित करते हैं। जब हमारे मन में सत्त्व गुण की प्रबलता होती है, तब हम यह सोचना आरम्भ करते हैं-"मुझे अपने गुरु की अत्यंत अनुकंपा प्राप्त हुई है इसलिए मुझे तीव्रता से अपनी साधना में प्रगति करनी चाहिए क्योंकि मानव जीवन अनमोल है और इसे लौकिक कार्यों में व्यर्थ नहीं करना चाहिए।" जब रजोगुण प्रबल होता है तब हम सोचते हैं-"मुझे अध्यात्म के मार्ग पर निश्चित रूप से प्रगति करनी चाहिए लेकिन इतनी भी क्या शीघ्रता है? वर्तमान में मुझे कई दायित्वों का निर्वहन करना है जो कि अधिक महत्वपूर्ण हैं।" जब तमोगुण का गुण हावी हो जाता है तब हम यह सोचने लगते हैं-"मुझे यह विश्वास नहीं है कि कोई भगवान है भी या नहीं क्योंकि उसे किसी ने कभी नहीं देखा है। इसलिए साधना में समय क्यों व्यर्थ किया जाए।" यहाँ यह बात विचारणीय है कि एक ही व्यक्ति के विचार भक्ति के संबंध में ऐसे उच्चत्तम और निम्नतम स्तर तक कैसे जाते रहते हैं।
तीन गुणों के कारण मन का अस्थिर होना स्वाभाविक है। हालाँकि हमें ऐसी परिस्थितियों में निराश नहीं होना चाहिए, अपितु इसके विपरीत हमें यह समझना चाहिए कि ऐसा क्यों होता है और इससे ऊपर उठने की चेष्टा करनी चाहिए। साधना का अभिप्राय यह है कि मन में इन तीनों गुणों के प्रवाह का सामना किया जाए और इसे भगवान और गुरु के प्रति श्रद्धा भक्ति को बनाए रखने के लिए बाध्य करना चाहिए। यदि हमारी चेतना पूरे दिन दिव्य चेतना में स्थित रहती है, तब फिर साधना करना आवश्यक नहीं होता। यद्यपि मन की स्वाभाविक भावनाएँ संसार की ओर प्रवृत होती हैं फिर भी हमें बुद्धि के सहयोग से इन्हें आध्यात्मिक क्षेत्र में लाने के लिए प्रयत्न करना होगा। आरम्भ में यह कठिन होगा किन्तु अभ्यास द्वारा ऐसा करना सरल हो जाता है। यह कार चलाने के समान है। आरम्भ में कार चलाना कठिन लगता है लेकिन अभ्यास द्वारा कार चलाना सहज हो जाता है।
श्रीकृष्ण अब इन तीनों गुणों द्वारा प्राप्त गन्तव्यों के संबंध में और इन्हें पार करने के लिए अर्थात् गुणातीत होने की आवश्यकता को व्यक्त करना आरम्भ करते हैं।